इरादा बुलंद है, लेकिन

इतिहास यह है कि मुद्रा की ताकत संबंधित देश की अंदरूनी अर्थव्यवस्था की ताकत से तय होती है। इसीलिए अगर भारत को अपने इरादे को सच में बदलना है, तो उसे पहले इस मामले में सशक्त होने के लिए काम करना चाहिए।
इस खबर से स्वाभाविक हलचल मची कि कच्चा तेल खरीदने के बदले कई भारतीय कंपनियां रूस को चीन की मुद्रा युवान में भुगतान कर रही हैं। बाद में एक मीडिया रिपोर्ट में यह आंकड़ा सामने आया कि कम से कम ऐसा दस प्रतिशत भुगतान युवान में हुआ है। इस तरह भारत भी इस समय दुनिया में चल रही मौद्रिक हलचल के बीच चीनी मुद्रा को मजबूत करने में सहायक बन गया है। इसी बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने यह खबर फिर से उछाली भारत ने अनेक देशों के साथ अपनी मुद्राओं में भुगतान करने का करार कर लिया है और इसके लिए जरूरी बैंकिंग सिस्टम भी बना लिया गया है। उधर विदेश मंत्री एस जयशंकर से पिछले दिनों जब ब्रिक्स की प्रस्तावित अपनी करेंसी के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने इसकी संभावना से सिरे से इनकार करते हुए कहा कि भारत का इरादा अपने रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने का है। कहा जा सकता है कि यह इरादा प्रशंसनीय है और भारत अगर भविष्य में महाशक्ति बनना चाहता है, उसे ऐसी महत्त्वाकांक्षा अवश्य रखनी चाहिए। मगर फिलहाल हकीकत इस महत्त्वाकांक्षा से मेल नहीं खाती।
20 से ज्यादा देशों के साथ आपसी मुद्रा में लेन-देन का करार कई महीने पहले हो चुका था। लेकिन उसमें असल में लेन-देन रूस और श्रीलंका के साथ ही शुरू हो सकी और अब संभावना है कि ऐसा बांग्लादेश के साथ होगा। इसी बीच रूस ने रुपये में भुगतान लेना रोक दिया। इस तर्क पर भारत से आयात के बदले भुगतान करने के बाद भी उसके पास जो भारतीय रुपया जमा हो रहा है, उसका कोई उपयोग नहीं है। यह मुद्दा देर-सबेर अधिकांश देशों की तरफ से उठाया जाएगा। कारण यह है कि वैश्विक निर्यात में भारत का हिस्सा सिर्फ दो प्रतिशत है। इतिहास यह है कि मुद्रा की ताकत संबंधित देश की अंदरूनी अर्थव्यवस्था की ताकत- और खासकर निर्यात क्षमता से तय होती है। इसीलिए अगर भारत को अपने इरादे को सच में बदलना है, तो उसे पहले इन क्षमताओं को बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए। जड़ मजबूत ना हो, तो फुनगी पर फूल लगाने की कोशिश कामयाब नहीं होती है।

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